16 March, 2011

! साफ कहना: सहज रहना !


सहज कविता का प्रतीक कविःश्री सोहनलाल रांका ‘सहज’               .
........ काव्य का केन्द्रीय स्वर !
 .........ओंकार श्री, उदयपुर !


       सोढावाटी’ के नाम से अतीत इतिहास का सुरचात क्षेत्र, आज की ताप ऊर्जा पॉवर का राष्ट्र प्रसिद्ध शहर-सूरतगढ.! इस धरती की काव्य ऊर्जा की अग्निधर्मिता        का सहज आलोक दिखा मुझे, सतर पार के आयु शिखरस्थ कवि श्री सोहनलाल रांका   ‘सहज’ की दो काव्य कृतियों में। ‘अवसर के उदगार और समय.समय के रंग’ नामित दोनो कृतियों का अवगाहन करते,  लम्बे अर्से के बाद हिन्दी की सहज कविता से रुह-ब-रुह होते मेरा- पाठक-कवि मानस, महाकवि तुलसीदास के दुर्लभ दूहे में रम गया कि ‘तुलसी’ असमय के सखा, धीरज, धर्म, विवेक--साहित, साहस, सत्यव्रत-राम भरोसो एक । यह दूहा मुझे ले गया कविवर मैथिलीशरण गुप्त के सहज ह्रदय प्रसूत इस काव्य-भाव की ओर कि ------
                 हे राम तुम्हारा चरित स्वयं ही काव्य है
                 कोई कवि बन जाय सहज संभाव्य है ।
तुलसी का, मैथिलीशरण का ही नहीं, लोकाभिराम राम चेते में उतरा तो प्रचेता कवि निराला की ‘राम की शक्ति पूजा’ रचना में टोहा मैंने, कवि सोहन रांका का केन्द्रीय स्वर मिल गया सहज सहज कि जिस कवि के काव्य लोक में उपस्थित हूं मैं - यह तो सहज कविता का प्रतीक केन्द्र है । 

            बडी कठिन डगर होती है सहज कविता की । सहज थे हमारे संत कवि सर्व श्री माखणलाल चतुर्वेदी, रामधारीसिंह दिनकर, कन्हैयालाल सेठिया, गणेशलाल उस्ताद के साथ खडा एक विनम्र कवि अपनी जन्म भूमि से मात्र दो मील दूर- ‘रंगमहल’ के पुरा स्थल का, ‘श्रुतिगृह’- सूरतगढ. वासी ‘सहज’ कवि श्री रांका । मैं कर रहा हूं इसके काव्य का समीझण । सम्यक द्धृष्टि का अर्थ बोध देता समीझण- ढर्रे से हटा ।

            कवि श्री तुलसी ने अपने संदर्भित दूहे में जिन सात असमय सखाओं का उल्लेख किया है उसका चौथा पायक है ‘साहित’/साहित्य/ । इस सखा के हाथ से हाथ मिलाता ‘साहस’ कहता है ‘राम भरोसो एक’ । सहज कवि रांका की झिलमिलाती कृतियां, मुझे लगा मुझमें बोल रही है - यह जो ‘राम’ है वह है जन । आम जन । इस आम जन से जुडा जो भी होता है वह काव्य के जनार्दन का उपासक होता है । आम जन का राम रमता है जिस कवि में निराला के शक्तिपूजा स्वरुप वही राम बोलता है कि ठीक कहता है कवि मैथिलीषरण - कोई कवि बन जाय सहज संभाव्य है ।

            ‘रांका-काव्य’ के केन्द्रीय स्वर की टोह में बढता - बिना किसी भूमिका के कह सकता हूं - अपने साठ साल की साहित्य सर्जना की काव्य ‘भूमा’ के बल पर कि - श्री सोहन रांका की कृतियों की काव्य धारा का प्रवाह, धीरज- धरम-विवेक को साहित से साहस का सहजानुबंधन रामशक्ति के भरोसे में निहित करता आस्था से जुडा है गहरे तक ।
                    
              जो होगा सहज वह होगा साहसी । आस्था; धर्मान्धता की नहीं । कवि ‘सहज’ की साहसिकता का विवेक है आत्मा की जीवट का उदघोष। मेरा समीझण, महाकवि तुलसी के संदर्भित दूहे की युगांतरकारी कसौटी पर कसा जारहा है- सहज स्वर के साथ । पाठक, कवि व कविता का बिचौलिया नहीं होता । वह समदर्शी होता है तो अपने कवि की कृति को पढता नहीं ‘भणता’ है । मैं कवि-पाठक व समीझक का त्रि-आयामी सहज-बोध लेकर चाहता हूं कृतियों में समाहित रचनाओं के उद्धरणों के अम्बार न लगे । बल्कि उन स्वरों को संकेतिक जरूर करूं जिससे कवि का काव्य स्वान्तः सुखाय बहुजन हिताय का माध्यम बने । न कोई वाद, न विवाद । नैराष्य नहीं । न अनापेझित गुणानुवाद । इसलिए श्री सोहन रांका ‘सहज’ की कविता - ‘साफ कहना - सहज रहना’ का संदेश देती है । संवेदनशील-स्वर कवि का टूके में कहूं तो कहूं -सटीक ।                     
        
                                              ................ओंकार श्री, उदयपुर ।             

‘‘अवसर के उदगार ’’......... ‘यह समाज’--रचना की आंख ।


 ! और कंहा होता है सहज, सहजता को अपना लेना ! कवि तो माध्यम भर । कृति के केन्द्रीय सहज स्वर की कवि ‘सहज’ की उक्त कड़ी ने कड़ी जोड़ दी है भाव श्रंखला की । ‘अवसर के उदगार’ काव्य कृति 2003 ई. की 112 प्रष्ठों के कलेवर में, धर्म प्रसंग/ भावाभिव्यक्ति/ अवसर विशेष/ आध्यात्मिक उर्जा/छात्र जीवन की रचनाओं का परिवेश संवारती सम्मुख है ।

      यह काव्य धर्म चेतना/ जागरूक मतदाता भूमिका/ संतुलन की जीवनधुरी तलाशता है । आशा की डोर, खंड-2 की ‘आशा और जीवन’- 108 मुक्तक माला का हाथ थामता है । आंतकवाद की जडों को टोहता है । साधुसंतो को अबेरता है । तप अभिनन्दन सारता है । खुद को पहिचानने की ललक जगाता है । मित्र में महावीरत्व संचारित करता है । मन की भाषा भणता है । कैसे बने जीवन सफल ! राह बताता है ।                                           

      कविता करिकै ‘तुलसी’ न लखै/कविता ही लखै तुलसी की कला ।  इस तुलसी वाणी तक वादग्रस्त कथित प्रगतिशील समीक्षक पहुंचते थक जाएगा पर कृतिकार कवि ‘सोहन’ नहीं । मैने काव्य कृति की मुख्य रचनाधारी सीध पाठकों को दिखा दी । अब वे पढें-गुणे और मन में भणे- सबकुछ परोसा पाठकों को मिलेगा तो वह आज के हेतुवादी समीक्षकों की तरह पढा लिखा अपढ़ रहजाएगा । 

      इस कृति की प्रतिनिधी कविता है - ‘यह समाज’ । जिस समाज में हम रहते हैं - कविता उसी की, कवि उसी का । पूरी कृति की आत्मा का उदधोष इसमें है - धर्म-कर्म-धन और आत्म घोषित भगवन्तों की खबर लेता कवि बोलता है ‘‘यह समाज कितना बेढंगा/बेपरवाह/बेकार हो रहा आज ।.......करते सब अपनी मनमानी/जिसने जैसी मनमें ठानी/धर्मार्थ का धन खाकर/ लोग यहां कहलाते दानी/धूर्त यहां धनवान बने/पापी देखो पुण्यवान बने/ बेईमान निर्दयी अन्यायी/अब धरती के भगवान बने/ढोंगी भी पढ़ रहे नमाज/ ---‘यह समाज’ ।

       यह रचना - कृति की कुंजी है । यह सहज केन्द्रिय स्वर है । ..... ‘साफ कहना - सहज रहना’ । इस सहज स्वर धारा में प्रवाहित है खंड-2 की 108 छंदी मुक्तक माला । ब्याहीजी जयचन्द्लाल जी गोलछा ‘सहन’ को ‘सहज’ कवि का यह काव्यार्पण है --- ‘यह समाज’ झांकता है इसमें ।
                          
                                    ..........ओंकार श्री, उदयपुर । 

----शस्त्र ओर शास्त्र का बोध-----‘‘समय समस के रंग’’


सन 2003 से 2010 की काव्य साधना के दशक-दौर में कवि सोहन रांका ‘सहज’ का साहित्य साहसी है,बड़बोला नहीं । इसके हर शब्द में जो सहज स्वर है इसमें ‘राम-आवाम’ की मर्यादा है ओर आस्था की ‘शक्ति- पूजा’ । पढो पाठक महोदय - तुलसी को, गुप्त को, निराला को और तुम्हारे बीच बसे समाजसेवी - सचेत नागरिक मतदाता, स्वाध्यायी - व्यवसायी का प्रतिक्रमण-तप परखो- रंगमहल की पुरा स्थली के ‘समय समय के रंग’ में रंगो अपना मानस ।

       यह कृति 43 रचनाओं की- 108 आचार्य महाप्रज्ञ की वाक प्रज्ञा के काव्यांतरण की है । ‘अवसर के उदगार’ पित्र तुल्य भ्राताश्री को- ‘समय समय के रंग’- अपनी मातुश्री-भाभी को समर्पित कर कवि समग्र समर्पण भाव से समवाय स्वरूप सहेजता दिखता है अपने ‘सहज’ स्वभाव में- काव्य प्रवाह में ।

       अकाल से जूझते राजस्थान का यह सीमान्ती कवि ‘अकाल’ को देखता है । बीज का बीजक खोलता है । प्रकृति की त्यागमयी लीला निहारता- पर्यावरण के बोल बोलता है । अहिंसा की तहें तपासता है । घर की बात करता है । हिन्दुत्व की कसौटी हाथ में लेता है । कवि सोहन उदारवादी जैन होकर सुधारवादी भारतीय है- राजस्थानी ठेठ ठाठ का । जिन्दगी टटोलता है । मौन दिवस मनाने का संकल्प जगाता है इच्छाशक्ति के साथ । ऋषभदेव, महावीर तथा जयाचार्य प्रभति भगवंतो को सुमरता है । आंतकवादियों के शरणदाता अमेरिका व पाकिस्तान का नग्न सत्य प्रगटाता है । बाड़मेर की बाढ़याद करता - पानी को वकारता है । ‘संसद में नजारा नोटों का’ रचना के धरातल पर लोकतन्त्र के मुखौटाधारी सांसदों के भ्रष्टाचरण के पोत चौडे़ करता है । कवि सोहन धरती के प्रति कृतज्ञता दर्शाता है । ‘खुरचण’- राजस्थानी कविता में मातृभाषा की संवेदना को चेताता है । ‘चन्दा मामा’ बाल रचना में कवि का बाल मन चांद जैसी बहु की लोक कामना बतलाता है । चन्दा मामा के बाल भाणजों के मन में गुदगुदी जगाता है ।.......मन न करेगा किसी संवेदनशील पाठक का कि इतनी सहज काव्य रचनाओं वाली कृति को पढने का । 

         मैं कहूं मेरी काव्य समझ के साथ कि इस कृति की प्रतिनिधी रचना है -‘शस्त्र ओर शास्त्र’ जैसी कि ‘अवसर के उदगार’ की ‘यह समाज’ रचना कवि-कविता का कृतित्व कौशल जाहिर करती है ।

         शस्त्र ओर शास्त्र - हिंसा और आगम सम्मत अहिंसा- दो छोर अलग अलग पर कवि ठहरा समन्वयवादी- कहता है- इस जगत की दो गहन समस्या ! शस्त्र और शास्त्र हमारे !-- कितना सामंजस्य है दोनो में ! आओ मिलकर इसे विचारें ! ......सावधान आगे विकट मोड़है ......निसंदेह मन,गहरे सोच में डूबता है । कवि का यह सामंजस्यवाद है क्या तो पाठकी मानस रचना के स्वर भणता आगे बढता है कि ‘‘दोनो ‘शस्त्र और शास्त्र’ का निर्माण व विकास हुआ- अनुशासन और रक्षा के नाम पर ’’-- और पाठक-मन समझता है ‘महावीरत्व’ का संदेश। पर कवि तो संवेदना का मूल भाव का चिन्तक - गहरे में गोते लगाता है,अपनी रचना ‘शस्त्र और शास्त्र’ को खंगालता- साफ कहना और सहज रहना काव्य का बृहम वाक्य सिद्ध करता कहता है सच सच कि---‘‘इन शस्त्र-शास्त्र के बलबूते/ बंट गया हमारा यह समाज’’।‘यह समाज’  --कवि ‘सहज’ की केन्द्रीय सोच-स्थली। प्रत्यक्ष है कि समाज टुकर टुकर देख रहा है--सशास्त्र ‘नक्सली आंतकी को, आम श्रावक-जनता से शास्त्र मूल दुराता मजे मार रहा है आडम्बरी शास्त्रज्ञ मठाधीश । कर्म हिंसा शस्त्र की - भाव हिंसा शास्त्र की । यह समाज विभाजन- राष्ट्र विभाजन से भी भयानक है । कहता कहता यही बात विदा होगया  भारत का विश्वचेता आचार्य महाप्रज्ञ । कवि ‘सहज’ ने,महाप्रज्ञ वाचित एक सौ दस छन्दों में बीस छंद अपनी कवि मनसा के रचकर जो काव्यभावान्तरण किया है - यह अनूठी काव्य प्रज्ञा विकासमान होगी आगे भी- विश्वहितायी विषयों पर- यह भरोसा उसकी क्षमता-आस्था व अहिंसाचारिता का है । 

            ‘महाप्रज्ञ’ ठीक कह गए --‘‘अहिंसा नहीं बन्दूक की/व्रत की सहज संस्कृति है/ असंतुलन में संतुलन का अहिंसा संबोध जगाती है / अहिंसा कोई शस्त्र नहीं/ कवच है आत्म रक्षा का/ सृजन का मार्ग है अहिंसा/ विकृति मे निज संस्कृति से अवगत कराती है अहिंसा/ वर्ग को अवर्ग बनाने की अहिंसा एक प्रणाली है’’ ।......सावधान आगे विकट मोड़ है ।

            कवि ‘सहज’ काव्य साधना में सदा रहें सहज। शस्त्र व शास्त्र’ से बंटे समाज को वे ‘यह समाज’ का सत्य दर्पण दिखातें रहें । इक्कीसवीं सदी- मनुष्य व मशीन की निर्णायक टक्कर की है । कवि सोहनलाल रांका ‘सहज’ का काव्य-साधना का पथ निर्भीक-निरामय रहे । समय समझें हम कि ‘सम-य’- जो ‘सम’ है वह है समय । ‘स-मय’ जो सब में समरूप समाया है- वह है समय । उसी समय की धार के है ‘सहज’ कवि जिसमें आम आवाम का राम रमा है ।                 
                                    ------- ओंकार श्री , उदयपुर  

13 March, 2011

क्षणिकाएं भाग-२

क्या करूं,क्या न करूं, जो सोचे सुबह और शाम !                                                                                                                                                                                              
                              दुविधा में दोनो गए,  न माया मिली न राम !                                                                                                                                                                

अच्छा करने से जीवन में, कब किसी ने हमको रोका !                                                                                                                                      
             आलस्य के बशीभूत होकर,हम स्वयं गंवा देते हैं मौका !                                                                                                            

आम आदमी का मुहावरा, "तुझे याद करा दूंगा नानी"!                                                                                                                                      
             मां की याद भी होगी ताजा, यह होगी उसकी मेहरबानी !                                                                                                                                                                

"अब दादूर वक्ता भये, फ़िर हमको पूछत कौन" !                                                                                                                                                                            
             दूनिया उनको सुनना चाहती, जो अक्सर रहते हैं मौन !                                                                                                                                            

बन्दूक की गोली से घायल,इंसान  अधिक डरता नहीं !                                                                                                                                                    
                 पर जुबान की गाली का जख्म, उम्र भर भरता नहीं !                                                                                                                              
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संभल जाता है गिरता व्यक्ति, यदि फ़िसले उसके पांव !                                                                                                                                                      
                  जुबान फ़िसल जाने पर, लग जाती है इज्जत दांव !                                                                                                                                                        

जब जब बाल दिवस हैं आते, चाहता मैं भी बच्चा होना !                                                                                                                                              
          लेकिन फ़िर घबरा जाता हूं,रास नहीं आता सच्चा होना !

05 March, 2011

क्षणिकाएं

     आत्मीयता बनती है तभी , जब हमको कोई जानता है !                                                                                        
     सफलता हाथ लगती उसे, जो मन में पक्की ठानता है !                                                                                             

     बहुत महत्व की होती है, छोटी-छोटी बातें व्यवहार में !                                                                                                    
     छोटी-सी भूल भी जीत को, बदल देती है देखो हार में !                                                                                                

     यह बात सभी कहते आए, गुरू का सदां सम्मान करो !                                                                                           
     अब यह भी कहना होगा, गुरू की पहले पहचान करो !                                                                                       

     हंसना स्वभाव है जीवन का, रोना उसकी मजबूरी है !                                                                                                            
     दुःख  को हल्का करने खातिर, रोना भी बहुत जरूरी है !                                                                                          

     हर कोई भावुक नहीं होता,  कुछ भले लोग ही होते हैं !                                                                                              
     हंसना कहाँ गवारा उनको, जो सब के संग-संग रोते हैं !               

04 March, 2011

यह मनुज की जिन्दगी

यह मनुज की जिन्दगी, कैसी अजब है जिन्दगी                                             
         साहस  के सोपान चढ़करती गजब है जिन्दगी                                                                                             
जब जिन्दादिली का नाम जिन्दगी,क्यों नफरत का अंजाम जिन्दगी                                                                           
जहाँ हो मैत्री  कृष्ण सुदामा जैसी ,क्यों दुश्मनी बुश-सदाम जिन्दगी                                                                       
कभी शान्ति दूत बन आते गांधी , देती अहिंसा का पैगाम जिन्दगी                                                                      
फिर क्यों हिटलर मुसोलिनी बनकर, करते हैं कत्ले-आम जिन्दगी                                                                         
बन विलासिता की पात्र कभी, क्यों देती है सबब शर्मिन्दगी                                                                                       
यह मनुज की जिन्दगी !                                                            
   
कितना भरा है जोश इसमें,फिर क्यों है खामोश जिन्दगी                                                                         
संकट में न खोती होश जो, क्यों बनती मदहौश जिन्दगी                                                                                                 
बेहद भरा है संतोष इसमे, फिर क्यों दर्शाती रोष जिन्दगी                                                                                                     
यह तो है आशुतोष फिर, क्यों रहती मन मसोस जिन्दगी                                                                                             
यह धन्य होती है तभी, जब करती है प्रभु की बंदगी                                                                                                       
यह मनुज की जिन्दगी ! 

किण बात रो आपां करां गुमान

                                                                                                                                                                   
       धन-दौलत सदां नै थिर रेवे, आ तो घिरत बिरत री छियां है !                                                                                       
       जिण जन नहीं सही उपयोग करयो,बांरी हालत हुई कियां है !                                                                                                                  
       माया रो नशों बड़ो है बैढ़गों,नहीं रेवन देवे अच्छे बुरे रो भान !                                                                                                               
       ----------------------        किण बात रो आपां करां गुमान !                                                                                                               
  
      जैकी बात दौलत व धन री है,बा सागी बात थारे तन री है !                                                                                   
      लियो खेल-कूद रो घणो मजो,अब यादां आवे बचपन री है !                                                                                  
      भई जोश जवानी दिन चार भली, गर करां एरों सही मान !                                                                                                    
     -------------------          किण बात रो आपां करां गुमान !                                                                                        
  
      जो करणों थाने अब करले, आछी बातां स्यूं झोली भर ले !                                                                                                   
      जदै आय बुढापो घेरे गो , फेरूँ किण बिध माल्ला फेरे गो !                                                                                          
      अन्जान नहीं सो जाने तूं ,फेरूँ भी क्यों बन्यो अनजान !                                                                                                  
      -------------------        किण बात रो आपां करां गुमान !

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